कहीं कोई एक झलक सी मिल जाती है
रूप-अरूप
रूप का तिलिस्म जब अरूप का सामना करे, तो बेचैनियां बढ़ जाती हैं...
Friday, December 12, 2025
वक्त...
कहीं कोई एक झलक सी मिल जाती है
Friday, August 22, 2025
तस्वीर ...
आप सोचेंगे इस तस्वीर में तो कुछ ख़ास नहीं… इससे बेहतरीन कई तस्वीरें हैं मेरे पास। मगर यह अनमोल है मेरे लिए। तस्वीर में जो मंदिर दिख रहा, उससे सटा हमारा घर है और छत से दिखता बादलों से घिरा पहाड़।
पिछले दिनों किसी और जगह जा रही थी तो यह दृश्य दिखा और बच्चों सी उछल पड़ी मैं। इस पहाड़ की चोटी तक चढ़ी हूँ छुटपन में और बादलों को आग़ोश में भरा है।तो बस यही है ख़ास… यहाँ मेरा बचपन है, जिसे मोबाइल में क़ैद किया है।
Friday, August 1, 2025
‘सब तीरथ कर आई, जन्म की मैली चुनरिया...’
जीवन में पहली बार महाकुंभ जाने को मौका मिला। इलाहाबाद जो अब प्रयागराज कहलाता है, उस स्टेशन से कई बार गुजरी, मगर कभी रुकी नहीं। हाँ, वहाँ के अमरूद पसंद हैं। बचपन में बहुत खाया है। पापा को हर तीन महीने पर दिल्ली जाना होता था और वहां से लौटते वक्त हमेशा ही मेरे लिए ढेरों अमरूद खरीकर ले आते थे। मेरे इसी अमरूद प्रेम के कारण वह अक्सर चिढ़ाते – “लगता है तुम्हारी शादी मुझे इलाहाबाद में ही करनी पड़ेगी वरना अमरूद लाने का खर्चा बहुत बढ़ जाएगा ।”
आखिरकार इलाहाबाद चली ही गई, वजह भले ही कुछ और थी। बचपन में अनेक फिल्में देखीं, जिसमें कुंभ के मेले में दो भाई या परिवार बिछड़ जाता है और अंततः वो बरसों बाद मिलते हैं। जिज्ञासा , तो थी ही, यह इच्छा भी साथ- साथ पलती आई थी कि कुंभ में पूरे देश के साधु जमा होते हैं। एक बार उनको करीब से देखें, बात करें, उनका जीवन समझें।
जाने की सोची , तो शाही स्नान, जिसे अब अमृत स्नान कहते हैं, वह दिन सबसे शुभ माना जाता है, यह पता लगा। मगर शाही स्नान में जबरदस्त भीड़ भी होती है। मुझे भीड़ में जाना पसंद नहीं, मगर कुंभ जाना हो, तो भीड़ में घुसना ही होगा। उस पर 144 साल बाद आने वाला महाकुंभ। (यह सुनी -सुनाई बात है, सच पता नहीं) इसलिए शाही स्नान की तिथि से दूर 23 व 24 जनवरी को प्रयाग जाना तय किया। संयोग ऐसा कि ट्रेन की टिकट भी मिल गई और रहने के लिए एक बार में टेंट भी बुक हो गया। यहाँ भी हमने भीड़ से दूर वाला क्षेत्र चुना, सेक्टर 25, यमुना तट का किनारा जिसे अरैल घाट कहा जाता है। 22 की शाम साढ़े आठ बजे की ट्रेन थी, जो घंटे भर देर से खुली राँची स्टेशन से। बहुत दिनों बाद ट्रेन की यात्रा पर निकले थे हमलोग। गप करते, खाते-पीते कब 12 बजे, पता नहीं चला और फिर हम सो गए। सुबह ट्रेन घंटे भर देर से छिवकी स्टेशन पर लगी। यह प्रयागराज जंक्शन से करीब छह- सात किलोमीटर की दूरी पर है और संगम स्थान से करीब 12 किलोमीटर।
ट्रेन से बाहर निकले , तो पता लगा कि प्लेटफार्म एक नंबर से बाहर निकलने पर रोक लगा दी है और हमें दूसरे रास्ते बाहर निकलना होगा। भीड़ में हम भी साथ हो लिये। चलते गए, चलते गए, न कोई ऑटो मिला, न रिक्शा, न ही कैब बुक हो। पता लगा इसे भी ‘नो व्हीकल जोन’ बना दिया गया है। अब चलते रहिए सामान के साथ पैदल, करीब दो किलोमीटर पैदल चलने के बाद हमें ऑटो मिला।
‘‘पाँच सौ रुपये लगेंगे, छोड़ दूँगा सेक्टर 25 तक।’’
जाने किन-किन गलियों, चौराहों से घुमाते हुए हमें लेकर चल दिया वह बातूनी ड्राइवर। कितने में मिला टेंट, कब बुक किया, हम , तो इसके आधे के आधे में दिला देते। स्कूल के लिए चलाते यह ऑटो, बीच में समय है, तो सोचे थोड़ा सवारी उठा लें, आपको गाड़ी चाहिए, अभी हम दिलाते हैं, चार चक्का में जाइए, ऑटो वालों की कोई इज्जत नहीं, घुसने ही नहीं देंगे।
सच ही कह रहा था बंदा। हमारे सेक्टर से काफी पहले ही एक पार्किंग स्टैंड बनाया हुआ था। वहीं हमें रोक दिया गया। ड्राइवर ने हाथ जोड़ लिये- ‘‘हम , तो कहे थे आपको पहुँचा देंगे सेक्टर तक। पुलिस वाले जाने नहीं दे रहे , तो क्या करें?’’ फिर एकबार सामान हाथ में उठाया और चल पड़े। वह , तो शुक्र है कि ज्यादा सामान नहीं था, वरना दोपहर की धूप में हमारी हालत खराब हो जाती।
करीब आधा किलोमीटर चल गए; मगर हमारे टेंट का पता ही नहीं चल रहा था। न कोई रिक्शा वाला बताए, न कोई राहगीर। आख़िर थक कर हमने चेक पोस्ट पर खड़े पुलिसवालों से सहायता माँगी। वे भी अनजान; मगर तभी बुकिंग वाले ने फोन उठा लिया, जिसे आधे घंटे से लगातार लगाए जा रहे थे हम। पता लगा कि हम सड़क के इस पार हैं और उस पार हमारा टेंट।
अंदर गए , तो मन प्रसन्न हो गया। कैंपस बहुत साफ और खूबसूरत। ऑफिस में इंट्री की और हम अपने टेंट की ओर चल पड़े। हर टेंट का नाम नदी के ऊपर रखा गया था। हमें जो टेंट मिला, उसका नाम गोदावरी था। बाहर दो आरामकुर्सी और अंदर होटल की तरह सारी सुविधाएँ। मन खुश हो गया। कुछ देर हमने आराम किया और यह तय किया कि सीधे जाकर संगम में ही स्नान करेंगे। हमने ट्रेन में कुछ खाया नहीं था, इसलिए भूख लग गई थी। जैसे ही एक बजे, हमने डटकर खाया और आकर सो गए। सोना हमारे प्लान का हिस्सा नहीं था, मगर यात्रा और धूप में चार-पाँच किलोमीटर चलने के बाद थकान महसूस होने लगी।
घंटे भर बाद नींद खुली। हड़बड़ाकर हमलोग बाहर सड़क पर निकले और गुजरते हुए ऑटो को हाथ देकर रुकवाया। उसने कहा - तीन सौ, बिना किसी हुज्जत के हम ऑटो पर सवार हो गए। यह क्या ! मुश्किल से तीन किलोमीटर की दूरी पर ही था अरैल घाट। इतनी दूर के तीन सौ, अब कुछ किया नहीं जा सकता था। जहाँ रोका ऑटो वाले ने, हमलोग उतरकर चल पड़े।
था , तो अरैल घाट ही, मगर संगम जाने के लिए जहाँ नाव स्टैंड बनाया गया है, वह जगह काफी दूर थी वहाँ से। करीब एक किलोमीटर। सड़क किनारे सैकड़ों दुकानें लगी थीं और अधिकतर में बच्चे ही दुकानदार थे, जो गंगाजल ले जाने के लिए हर साइज का गैलन बेच रहे थे। नदी तट पर जबरदस्त भीड़ और जहाँ तक नजर जाती, नदी में नाव ही नाव। कुछ लोग किनारे नहा रहे थे, कुछ गैलन में गंगाजल भरकर ले जा रहे थे। एक साधु चुपचााप किनारे पर बैठा एकटक पानी को निहार रहा था। किनारे -किनारे चलते काफी दूर निकल आए थे हम मगर स्टैंड अब भी दूर ही था। इसी बीच अचानक एक नाव किनारे लगी और बगल में खड़े आदमी ने कहा - ‘‘संगम जाना है, तो चुपचाप बैठ जाइए।’’
‘‘कितना लोगे- तीन हजार?’’
हम तीन के लिए तीन हजार; मगर अब तक समझ आ गया था कि यहाँ किसी चीज का कोई रेट फिक्स नहीं। बेतहाशा भीड़ और मनमाना दाम। अगर नाव स्टैंड पर जाते, तब तक शाम हो जाती। हमें जल्दी थी।
नाव में बैठकर इत्मीनान हुआ और आसपास देखा। ढेरों प्रवासी पक्षी आने-जाने वाली नाव के ऊपर मँडरा रहे थे। एक नाव वाला उनके लिए दाने बेच रहा था। सूरज हमारे पीछे धीमे-धीमे उतर रहा था और प्रवासी पक्षी मकई के दानों को देख हमारे पीछे खिंचे चले आ रहे थे।
लगभग पन्द्रह मिनट बाद हमलोग त्रिवेणी संगम पर थे, जहाँ गंगा और यमुना के पानी के रंग में बारीक- सा अंतर दिख रहा था। सरस्वती , तो विलुप्त ही थी। कई नावें एक दूसरे से सटकर लगी हुई थी और वहाँ पंडित जी पूजापाठ का तामझाम लेकर बैठे थे।
हम सीधे पानी में उतरे। वहाँ घुटने से नीचे पानी था। बहुत लोग स्नान करने वाले थे, मगर उस किनारे यानी किले की तरफ जितनी भीड़ दिख रही थी, उस हिसाब से यहाँ कुछ भीड़ नहीं थी। लोग आराम से डूबकी लगा रहे थे। वहाँ नाव पर संगम का जल ले जाने के लिए रंग- बिरंगी गैलन बिक रहे थे। गंगाजल का महत्त्व इतना है कि हर हिंदू अपने घर में अवश्य रखता है।
इतने कम पानी में स्नान करने का आनंद नहीं आया। किनारे महिलाओं के लिए चेंजिंग रूम बना हुआ था। वहाँ कपड़े बदलकर हमलोग नाव में वापसी के लिए बैठ गए। पश्चिम में सूरज एक बिंदी की तरह दिख रहा था। हम लोगों ने वापस टेंट पहुँचकर गर्म चाय पी, जिससे ताजगी का अनुभव हुआ।
अब जाना था उस पार, जहाँ सेक्टर 18 से 20 में साधुओं का अखाड़ा था। पूरे देश के साधु -महात्मा नदी के उस पार जमा थे, जिन्हें सामने से देखने का आकर्षण कुंभ में खींच लाया था मुझे। समस्या यह कि उस पार जाने के लिए पीपा पुल पार करना होगा। यानी इस छोर से उस छोर। सात बज चुके थे। पैदल जाने की इच्छा नहीं थी। एक ऑटो वाले से डील हुई कि वह उसी से पूरा कुंभ क्षेत्र घुमाकर वापस टेंट छोड़ जाएगा। हमें बिठाकर पहले सेक्टर 23 के पीपा पुल से निकलने की कोशिश की, वह वन वे था फिर 24, 27, 29 सब बंद। आखिरकार वह शहर के बाहर पुराने पुल से हमें ले जाने लगा। पूरी नदी बिजली के लट्टुओंसे जगमगा रही थी। रास्ते में इतना भंयकर जाम कि लगा यहीं नैनी ब्रिज से लौटना पड़ेगा। सरकते -सरकते, सँकरी गलियों से होते नाग-वासुकी मंदिर के दर्शन करने के उपरांत वेणी माधव मंदिर होते हुए जूना अखाड़ा पहुँचे।
रात होने लगी थी। ठंड का समय। सारे साधु महात्मा अलाव के किनारे बैठे थे। जो भक्त करीब जाते, उनकी ललाट पर भभूत का टीका लगा देते। कुछ श्रद्धालु अपनी मर्जी से उनको चढ़ावा चढ़ाते, कुछ को वे इशारा करते कि - बच्चा..कुछ डालते जाओ थाली में।
उस समय तक सोशल साइट पर आईआईटियन बाबा और माला बेचने वाली मोनालिसा की धूम मच चुकी थी। एक चाँटा मारने वाले बाबा और रुद्राक्ष वाले बाबा की भी खूब चर्चा थी। बाकी , तो नहीं दिखे, मगर रुद्राक्ष वाले बाबा भीड़ से घिरे मिले। हर कोई उनसे आशीर्वाद लेना चाह रहा था। अखाड़े में छोटी -छोटी कुटियाँ बनी हुई थीं और अलग-अलग गुट बनाकर सब बैठे थे। कुछ बाबा बतियाते मिले, तो कुछ शरीर पर राख मले धुनी रमाए बैठे थे।
किसी कुटिया के आगे भगवान की तस्वीर रखी थी। उस पर गेंदे की माला सजाकर आकर्षक रूप दिया गया था। मोर पंख के गुच्छों को सर से छुआ आशीर्वाद देते थे बाबा। कहीं - कहीं माला-मनका और रुद्राक्ष और जाने क्या -क्या अबूझ चीजें बेची जा रही थी। एक बाबा रात में भी लाल ग्लास का गॉगल्स पहनकर चिलम फूँकते मिले।
“रात में गॉगल्स क्यों पहने हैं बाबा ?’’ रहा नहीं गया , तो पूछ ही बैठी।
“तुम लोग स्टाइल करते हो न, तो यह मेरा स्टाइल है।” बाबा ने हँसते हुए कहा और हमारे साथ मुस्कराते हुए फोटो भी खिंचवाया ।
आगे बढ़े , तो फूस की झोपड़ी की दीवार का सहारा लेकर एक बाबा कान में फोन लगाए बैठे थे और एक भक्त उनकी चरण सेवा में लगा था। एक और कुटिया में प्रवेश किया, तो बाबा ने इशारे से सामने बुलाया और लोहे का त्रिशुलनुमा डंडा जिसे नीचे लोहे से टाइट कर पकड़ने के लिए गोल चूड़ीनुमा रिंग लगा था, उससे पीठ पर थपकी दी। मुझे थोड़ा दर्द महसूस हुआ।
जाने क्या था चेहरे का भाव कि बाबा ने पूछा - “खाना खा लिया? अंदर जाओ, भोजन की व्यवस्था है।’’ हमने नहीं खाया था , मगर उनको मना किया । फिर वो बोले- “रहने की व्यवस्था हुई, न हो , तो रुक जाओ, यहाँ पर्याप्त जगह है।”
मैंने हाथ जोड़े और उनके बगल में बैठे महन्त की फोटो खींच ली, जो सुट्टा तान रहे थे। वे अकबकाए-“कहीं फोटो मत लगा देना!”
‘‘नहीं लगाऊँगी’’ कहकर मैं वहाँ से निकल पड़ी।
मुझे जो देखना था, वह दिखा नहीं। बहुत सामान्य- सा सब था। जैसे मंदिरों में चढ़ावा चढ़ता है, वैसे यहाँ भी पैसे दिए जा रहे थे। शायद रात भी होने लगी थी। शंकराचार्य के मठ भी थे वहाँ, मगर गई नहीं। सोचा अब किन्नर अखाड़ा देखकर वापस हो लेंगे।
मगर ड्राइवर का कहना था कि वह बहुत दूर है और अब सब सोने की तैयारी में होंगे। बात सही थी। हमलोग उसी आटो में बैठकर वापस अपने टेंट पहुँचे। रात का भोजन किया और सोने चले गए। हमारे पास आज का दिन भी था। सुबह हमारे कदम फिर अरैल घाट के संगम की ओर बढ़ चले। भोर में सूरज की किरणों से यमुना का पानी सोने की तरह चमक रहा था। ऊपर उड़ते पक्षियों का कलरव और नीचे चलती नाव ने उस सुबह को अद्भुत रूप-राशि दे दी थी।
इस बार नाविक ने ऐसी जगह नाव लगाई, जहाँ कमर से ऊपर तक पानी था। हमने मजे में खूब डुबकी लगाई। आज स्नान का आनंद आ गया। भरपूर नहाने के बाद वापस टेंट में आकर नाश्ता किया और तुरंत निकल पड़े। हमें उस पार जाना था और पैदल ही जाना था।
सोमेश्वर घाट के सामने से उस ओर जाना था, तो पहले मंदिर भी हो लिये। पीपा पुल पार करते हुए ठंडी हवा ने मन खुश कर दिया। यहाँ भी संगम का पानी आता है; इसलिए स्नान करने वालों की भीड़ थी। सबसे मजेदार लगा एक कुत्ते का पानी में तैरते हुए नहाना। वह अपने मालिक के साथ आया था और उसके साथ -साथ डूबकी लगा रहा था। नदी के बीच में सफेद रंग की लंबी कतार थी। ऐसा लग रहा था लाइन से ढेरों कुमुदनी खिली हो। मगर नहीं, वह , तो पक्षियों की कतार थी, जो बहुत मोहक लग रही थी।
हम पैदल चलते जा रहे थे, मगर कुछ गाड़ियों को परमीशन थी पार होने का। वीआईपी कल्चर हमारे देश की नस-नस में बसी हुई है। कुछ पल को गुस्सा आया मगर गंगा की लहरों को छूकर आती हवा ने ध्यान वापस पानी और पक्षियों की ओर मोड़ दिया।
अब हम उस पार थे। भीड़ थी, नहीं, जन सैलाब था। लाखों की भीड़..सबके कदम संगम की ओर उठ रहे थे। हमने सोचा- यहाँ तक आ गए हैं, तो हनुमान जी के दर्शन कर लें। यह एक ऐसा विचार था, जिसने हमें थका के चूर कर दिया। हमने फिर से पैदल एक पीपा पुल पार किया। रास्ते में एक बच्ची मिली, जो बाँस की बल्ली से बैलेंस बनाते हुए रस्सी पर चल रही थी। बगल में लाउडस्पीकर पर तेज आवाज में कोई भजन बज रहा था और उस बच्ची की सुरक्षा या कहें साथ देने के लिए उसकी माँ भी नीचे- नीचे चल रही थी। मुझे यह दृश्य बहुत व्यथित करता है। एक छोटी बच्ची, जिसे स्लेट कॉपी थामकर स्कूल जाना चाहिए, वह पेट पालने के लिए तमाशा या कहिए अपने नन्हे- से जीवन को दाँव पर लगा पतली रस्सी पर चल रही। अगर गिर पड़ी, हाथ- पैर- कमर टूट गए , तो? आगे एक बाबा बहुत इत्मीनान से पुआल के ढेर से लगकर नींद ले रहे थे। हाफ पैंट पहने एक बाबा काँटों के बिस्तर पर लेटकर डमरू बजा रहे थे। लोग उनके पास कुछ देर को रुकते, देखते, पैसे फेंककर आगे बढ़ जाते। यह तपस्या पेट पालने के लिए है। हमलोग भी तमाशबीन की तरह सब देखते आगे चले जा रहे थे। अचानक एक साधु आया और उसने कहा - “दीया जलाने के लिए तेल दे दो माई।” मैं इंकार नहीं कर पाई। पास की दुकान से सरसों का तेल खरीदकर उसे दिया और आगे बढ़ चली। मंदिर दूसरे छोर पर था। लाखों की भीड़, लोग थैला उठाए, कंधों पर बच्चों को बिठाए, चलते चले जा रहे थे। एक परिवार रस्सी के घेरे में खुद को बाँध कर आगे बढ़ता जा रहा था। कोई थककर सड़क पर बैठ गया था, कोई गन्ने का रस पीकर प्यास बुझा रहा था।
मंदिर के पास भीड़ नहीं, समंदर था। मैंने कहा- वापस चलते हैं ; हालाँकि मुझे किला देखने का मन था, मगर हिम्मत नहीं थी। एक फूल की दुकान वाले के सहयोग से जरा अंदर जाकर और प्रणाम कर हम निकल पड़े कि अक्षयवट और अकबर के किले को देखने फिर कभी आऊँगी।
अब तक तीन बार पीपा पुल पार कर चुके थे। लगातार चलने के कारण थकान होने लगी थी। वापसी में एकतारा बजाकर गाते हुए एक बाबा मिले। सच कहूँ, एकदम मोह लिया उन्होंने। मैं थमी रह गई वहीं- “सब तीरथ कर आई, जन्म की मैली चुनरिया।” इतना बेहतरीन गा रहे थे और धुन, अगर हमें आगे नहीं जाना होता, तो वहीं रुकती, देर तक उनको सुनती। वापस आने के बाद अफसोस हुआ कि क्यों नहीं अपने मन की सुनी मैंने।
अब हम एक बार वापस सड़क पर आ गए। किन्नर अखाड़ा सेक्टर 16 में था और हमलोग सेक्टर 25 से निकलने के बाद लगातार पैदल ही चल रहे थे। बहुत देर तलाशने के बाद एक ऑटो वाला मिला, जो हमें किन्नर अखाड़ा ले गया। वहाँ की भव्यता ही अलग थी। महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी मीडिया और प्रभावशाली लोगों से घिरी हुईं थी। उनके पीछे कैमरा लेकर लोग भागे जा रहे थे। मैंने दूर से देखा सब। जब भीड़ छँटी, तो जाकर प्रणाम किया। उन्होंने एक सिक्का दिया मुझे। पूरे अखाड़े परिसर में किन्नर सुंदर वेशभूषा में जगह-जगह बैठे थे। लोग श्रद्धा के सिर झुकाकर आशीर्वाद ले रहे थे।
कुछ देर रुककर हम सीधे वापसी का रास्ता पकड़े। एक ऑटो वाले ने हमें 26 नंबर के पीपा पुल के पास छोड़ दिया कि इस रास्ते वापस जा सकते हैं। मगर किसी वीआईपी मूवमेंट के कारण उसे वन वे कर दिया गया था। 27 नंबर भी बंद। थके हुए हमलोग एक चाय की दुकान पर बैठ गए। कुछ खाया नहीं था गोलगप्पों के सिवा, तो भूख भी लगी थी। रास्ते में कई जगह भोजन बँट रहा था, जिसमें बहुत लंबी लाइन थी। कई जगह लंगर भी चल रहा था। हमलोगों ने चाय के साथ बिस्किट खाया।
वहीं मिली एक सोलो ट्रैवलर जो कुंभ की महिमा सुनकर विदेश से आई थी। उसे बहुत अच्छा अनुभव हुआ यहाँ आकर। कहने लगी - बहुत अच्छे लोग हैं यहाँ के। सब हेल्पफुल। बस उसे भी हमारी तरह ही शिकायत थी कि सही जानकारी नहीं दी जा रही कि किधर से जाएँ, कहाँ कोई सवारी मिलेगी। वीआईपी मूवमेंट ने आम जनता की हालत खराब कर दी थी।
आखिरकार हम 28 नंबर के पीपापुल पहुँचे और शाम के सन्नाटे में नदी पार करने लगे। हवा में घुली ठंडक से हमारी थकान कम होने लगी। साँझ ढल गई थी। केवल लालिमा बची थी, जिससे गंगा के पानी का रंग गुलाबी हो आया था। रौशनी की झालर पानी में अपना प्रतिबिंब बनाती और मोहक हो उठी थी। पुल खत्म हुआ , तो हम अपने टेंट बहुत क़रीब थे। करीब 20 किलोमीटर की लंबी दूरी जीवन में पैदल कभी तय नहीं की थी। टेंट पहुँचकर पहले , तो बिस्तर पर ढह गए हम। फिर कुछ देर बाद डिनर के लिए गए। आज वहाँ एक लड़की बहुत मधुर भजन सुना रही थी। हमने देर तक भजन का आनंद उठाया और कैम्पस में कुछ देर चाँदनी रात और हवाओं को महसूस किया।
सुबह जल्दी निकलने की ताकीद बहुत लोगों की थी। जल्दी निकलने और कैब करने के बावजूद लगा कि ट्रेन छूट जाएगी। जिस रास्ते से जाएँ, उधर ही जाम। तनाव ने हमारी बोलती बंद करा दी। हम आप्शन तलाशने लगे कि अगर ट्रेन छूटी, तो वापस कैसे जाएँगे। जैसे ही स्टेशन के पास कैब रुकी, हमलोग दौड़ते हुए प्लेटफ़ार्म तक पहुँचे ही थे कि हमारी ट्रेन आकर लगी। पाँच मिनट की देरी से ट्रेन छूट जाती; हालाँकि हमें घर रात के एक बजे पहुँचना था, सुबह छह बजे पहुँचे; मगर पहुँच गए।
साधुओं से मिलने और उनको समझने की इच्छा मन ही में रह गई। हाँ, यह ज़रूर कह सकते हैं कि हमने भी एक बार जीवन में कुंभ स्नान कर लिया।
Sunday, July 13, 2025
मधुमालती ...
पड़ोस में थोड़ी दूर पर एक छप्पर वाला घर था और सामने की तरफ़ मधुमालती की लतर फैली थी।शाम को उसकी भीनी खुशबू फैलती तो बड़ा ख़ुशनुमा एहसास होता। वो समय सबके इकट्ठे होकर बतियाने का था। सहेलियाँ, कुछ सहपाठी और कुछ के दीदी- भाई भी कभी-कभार हमारी मंडली में शामिल हो जाते।
गपशप के साथ कभी चाय पीते हमलोग तो कभी भूंजा खाते।शाम का धुँधलका घना होते-होते रात में बदलने लगता तो एकाएक कोई चौंक कर कहता- ‘बाप रे… इतना देर हो गया।’ इतना सुनते ही सब अपने घर की ओर भागते… तब सूरज ढलने के बाद पढ़ने के लिए नहीं बैठे या घरवालों को नहीं दिखे तो भाषण शुरू…
उस वक्त जब वहाँ से उठकर अपने घर की ओर जाने लगती तो हौले - हौले बजने वाले टेपरिकॉर्डर का वॉल्यूम बढ़ता जाता - ‘तुमने किसी की जान को, जाते हुए देखा है, वो देखो मुझसे …’
अब आलम यह है कि जब भी मधुमालती के फूल या उसकी ख़ुशबू से साबका पड़ता है, यही गीत कानों में बजने लगता है 

Wednesday, September 18, 2024
पुरानी तस्वीर...
कल से लगातार बारिश की झड़ी लगी है। कभी सावन के गाने याद आ रहे तो कभी बचपन की बरसात का एहसास हो रहा है। तब सावन - भादो ऐसे ही भीगा और मन खिला रहता था। मुझे बूंदों की आवाज तब भी बहुत पसंद थी और अब भी...
Friday, August 23, 2024
हमारे साझे का मौसम
उस बारिश से इस बारिश तक
न जाने कितनी बरसातें गुजर गई
यह हमारे साझे का मौसम है
हवा, बादल, मोगरे, रातरानी
सब तो हैं,
टूटकर बरसता है आसमान भी
पर भीगता नहीं मन
हवाओं में घुली खुशबू नहीं आती इन दिनों मुझ तक
तुम थे तो कितनी सुंदर लगती थी दुनिया
बारिश बजती थी कानों में
संगीत की तरह
और पहाड़ों से बादलों को लिपटते देख
नहीं थकती थीं आंखें....
Saturday, August 10, 2024
बारिश का इंतजार...
Wednesday, August 7, 2024
बरसती बूंदों का राग
केले के उन हरे सघन पत्तों पर
अनवरत बरसती बूंदों का राग है
हर बरस इस मौसम में बस एक ही बात सोचती हूं
क्या कोई होगा जो मेरी तरह यूं ही
बारिश को महसूस करता होगा...
क्या उसके अंदर भी
जंगल में बारिश देखने की चाह उगती होगी
क्या मेरी तरह वो भी छत पर भीगता होगा
कितने तो ख्याल हैं
बारिश से बदलती धरा के अनगिनत रंग और
माटी से उठती सोंधी गंध है
ये कैसी अनजानी सी पीड़ा है
कि पहाड़ पर बारिश से बजती टीन की छत भी जैसे
किसी अनदेखे को पुकारती लगती है
मेरे लिए कोई है क्या इस दुनिया में
जो यूं बारिश को आत्मा से महसूस करता होगा...
Saturday, August 3, 2024
बारिश की आवाजें
रात के अंधेरे में हो रही बारिश की आवाजें हैं!
अभी एक और आवाज की स्मृति शामिल है इसमें
दूर फैले पहाड़ों पर होती हुई बारिश देखने
दो और आँखें कभी शामिल थीं
Thursday, July 11, 2024
वाणभट्ट की आत्मकथा बनाम गाँव की व्यथा
किताब के हाथ में आते ही अचानक मेरा गाँव मेरे जेहन में करवटें
बदलने लगा। जी हाँ, ओरमाँझी मेरे गाँव का नाम है। राँची शहर से महज 20-22 किलोमीटर दूर। अब
तो वहां तक पहुँचने के लिए चौड़ी सड़क बन गई है। सड़क के दोनों ओर बाजार बन गए हैं, दुकानें खुल गई हैं। पहले सा वहां अब
कुछ भी नहीं रहा। लोगों की आवाजाही, भीड़ और शोर-शराबे में मेरा वह गाँव अब गुम हो गया है जिसकी याद
रामेश्वर सिंह पुस्तकालय की मुहर लगी इस किताब ने दिला दी है।
'वाणभट्ट की आत्मकथा' हाथ में पकड़े सोच रही हूँ कि लाइब्रेरी की यह किताब भला मेरे पास कैसे? हम शहरी हो चुके लोगों की स्मृतियाँ अब तकनीकों पर निर्भर रहने लगी हैं। मेरी स्मृतियाँ उस दौर की हैं जब इक्के-दुक्के घर में लैंडलाइन फोन हुआ करता था। टीवी नाम की कोई चीज होती है - यह पढ़ा तो था, मगर पहली बार तब देखा जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी, और गांव में एक अकेले घर में टीवी देखने के लिए इतनी भीड़ उमड़ पड़ी थी कि लगा कोई मेला हो। सामने बैठी भीड़ और पीछे खड़े बेशुमार लोग...और हम जैसे बच्चे उचक-उचक कर प्रधानमंत्री की अंतिम यात्रा देख रहे थे। हालांकि साल बीतते-बीतते हमारे घर भी ब्लैक एंड व्हाइट टीवी आ गया, जिसमें आनेवाले कृषि दर्शन का भी इंतजार बहुत शिद्दत से किया जाता था।
बाद के दिनों में लैंडलाइन फोन भी बहुत सामान्य सी बात हो गई थी, यानी एक मोहल्ले में दो-चार फोन तो होते ही थे। ये सारे फोन नंबर हमारी जुबान पर बसे होते। फोन नंबर के लिए डायरी पलटने की जरूरत नहीं पड़ती थी। हालांकि तब भी हमसब अपने पास छोटी सी फोन डायरी रखते थे, जहां सबके नंबर नोट रहा करते थे। लेकिन अभी याद करने की कोशिश कर रही हूं तो अपने बच्चे, पति और दोस्तों में भी किसी के मोबाइल का नंबर याद नहीं। मजे की बात यह कि मुझे खुद का दूसरा नंबर याद नहीं। जब जरूरत पड़ती है तो मोबाइल के फोन कॉन्टैक्ट में जाकर नंबर निकाल लेती हूँ।
कह सकती हूँ कि तकनीकों ने हमें कई तरह की सुविधाएं दी हैं, लेकिन उसपर निर्भर होकर हमने अपना
बहुत कुछ गवां दिया है। एक बड़ा हमला तो हमने अपनी स्मृतियों पर ही कर दिया है। अब
आँकड़े और फैक्ट हमारी स्मृतियों में नहीं गूगल पर बसने लगे हैं। इसी खोई हुई
स्मृति का नतीजा है कि मैं हैरत में हूं लाइब्रेरी को याद कर, जो मेरी स्मृति में नहीं रह गई थी।
वाणभट्ट की आत्मकथा ने मानों कई स्मृतियों पर से धूल हटा दी। जेहन का एक पूरा परत
धूलरहित कर दिया और मुझे मेरे गाँव की लाइब्रेरी बिल्कुल साफ-साफ दिखने लगी। सच
बताऊं तो गाँव आते जाते कई बार यह ख्याल उठता रहा था कि गाँव में पढ़ने-लिखने का
माहौल बनाने के लिए एक लाइब्रेरी खोलनी चाहिए। पर इस दौरान कभी मेरी स्मृति में
रामेश्वर सिंह पुस्तकालय नहीं आया।
गाँव में पुस्तकालय खोलने का इरादा इसलिए भी बनता रहा है
कि गाँव मुझे प्रिय है। वहाँ का जीवन अब भी लगभग ऐसा ही है कि सूरज डूबने और उगने
के साथ ही दिनचर्या खत्म और शुरू होती है। यदि शाम ढलने के बाद के समय का
सदुपयोग किया जाए, तो बहुत से बच्चों का जीवन और बेहतर हो जाएगा। ज्ञान और अनुभवों की
निधि तो पुस्तकों से ही प्राप्त की जा सकती है न!
मेरे मन में अनवरत चलते विचारों को इस सुखद हैरत ने थाम लिया कि
ओरमाँझी में तो बकायदा पुस्तकालय हुआ करता था, जिसका प्रमाण है यह किताब। मगर इतनी
महत्वपूर्ण बात भला मैं भूल कैसे गई...?
मेरे घर के ठीक सामने एक मंदिर हुआ करता था। हालांकि अब उसका वह
अस्तित्व ही समाप्त हो गया जो मेरी यादों में है। समय के साथ सब परिवर्तित होता
गया।अब तक मेरी यादों में बसे उस पुराने मंदिर को तोड़कर एक भव्य मंदिर का निर्माण
हो चुका है। अब केवल मंदिर बचा है... मेरे बचपन में उस जगह खेल का मैदान था...
वहां नाटक खेला जाता था... वहां छउ नृत्य का आयोजन होता था, वहां नेताओं के भाषण होते थे ..और तो
और मदारियों का करतब भी वहीं देखते थे हम। मुख्य मंदिर में प्रति वर्ष दो बार माँ
दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की जाती थी और पांच दिनों का उत्सव मनाया जाता था। उसी
मंदिर के अगल-बगल दो कमरे थे, जिसमें बाईं तरफ का कमरा पूजा-पाठ के दौरान सामान रखने के काम आता
था और दाईं ओर वाले कमरे के ऊपर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था 'रामेश्वर सिंह पुस्तकालय।'
मैं नहीं जानती रामेश्वर सिंह को, जिनके नाम पर यह पुस्तकालय खोला गया
था, मगर वह मेरे लिए अभिनंनदनीय हैं, जिन्होंने एक ऐसे गाँव में पुस्तकालय
की स्थापना की, जहां मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं थीं। यह अलग बात है कि उनके
नेक विचारों को संभालकर आगे बढ़ाने वाला कोई व्यक्ति नहीं मिला, वरना कम से कम पुस्तकालय का अस्तित्व
तो नहीं मिटता।
यादों पर पड़े जाले साफ करने से याद आता है कि अंदर लकड़ी के
आलमीरे में खूब किताबें थीं...ठूसी हुईं-सी, जहां घुसने पर अजीब तरह की सीली गंध
घेर लेती थी। शाम होते ही बल्ब की पीली रौशनी जब दरवाजे से बाहर निकलकर बरामदे
पर पड़ती तो पता चल जाता कि गांव के ही रघु चाचा अपना दिन का काम खत्म कर अवैतनिक लाइब्रेरियन के रूप में कार्यभार संभालने आ
गए हैं।
मैं तब बहुत ही छोटी थी और मेरा उपयोग बस इतना था कि माँ मुझे
भेजती थीं किताबें लाने के लिए। मुझे याद है उस समय माँ के माथे से पल्लू कभी
सरकता नहीं था और किसी बाहरी आदमी से कुछ लेन-देन करना हो तो दरवाजे की ओट से उनका
हाथ ही बाहर आता था। इसलिए इस आदान-प्रदान का माध्यम मैं ही बनती थी।
हालांकि उस समय पर्दा या घूंघट प्रथा
नहीं थी क्योंकि मां घर में आराम से साड़ी का पल्लू कमर में खोंसकर काम किया
करती थी। बस जब दादाजी घर के अंदर आते तो उनकी आहट मिलते ही सर पर पल्लू रख
लेतीं थी मां। दादी कभी सर पर आंचल नहीं लेती थीं, मगर मां बाहर वालों और खासकर किसी बुजुर्ग को देखते ही झट माथे पर आंचल खींच लेतीं।
कई बार लाइब्रेरी बंद कर लौटते समय रघु चाचा मेरी माँ के लिए
किताबें ले आते और दरवाजे से मुझे पुकारते। उस समय मां की रसोई का वक्त होता था
इसलिए अपना नाम सुनकर मैं बाहर दौड़ती और पहले उनकी लाई किताब माँ को थमाती और वापसी में
उनको माँ की पढ़ी हुई किताबें पकड़ा देती।
मैं तो यह बात बिलकुल भूल गई थी कि इसी किताब को तीन बार रीन्यूवल
कराने के बाद भी माँ की पढ़ने की इच्छा बरकरार रही तो उन्होंने इसका मूल्य चुकाकर
अपने पास रख लिया था... और जाने कैसे यह मेरी लाइब्रेरी की किताबों के बीच चुपचाप
छुपा रहा। तब गाँव की महिलाएँ उस पुस्तकालय तक नहीं जाती थीं... पुस्तकालय ही
क्यों...सब महिलाएँ घर से बाहर बस तीन वजहों से निकलती थीं... उन्हें डॉक्टर के
पास जाना हो, मंदिर जाना हो या फिर वोट देने। उनके पास चौथी कोई वजह नहीं थी, जिसके लिए देहरी से उनके पाँव बाहर
आते। ऐसे माहौल में मेरी माँ का जबरदस्त पाठक होना अभी भी हैरान करता है
मुझे।
मुझे याद है, मेरे पिता अखबार नियमित रूप से पढ़ते थे मगर किताबों में उनकी कोई
दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए माँ ही लाइब्रेरी की सदस्य बन गई थीं। जाने पिता की रजामंदी
से या छुपकर.. पता नहीं। उन दिनों गाँव में किताबों की दुकान नहीं होती थी, इसलिए पुस्तकालय ही एकमात्र जरिया था
अपनी पढ़ने की भूख शांत करने का। दोपहर के एकांत में मां को हमेशा ही किताब पढ़ते
पाया था मैंने।
अतीत हमेशा से बहुत सुंदर और मोहक लगता है। अब याद करती हूं तो याद
आता है कि जब मेरी उम्र कहानियां और उपन्यास पढ़ने की हुई, तब तक लाइब्रेरी बंद हो चुकी थी। वैसे
किताब की दुकान तो अब भी नहीं है वहां, वहीं ही क्यों..शहरों में भी एक-एक
कर सभी दुकानें बंद हो चली है...और अब सारा ज्ञान लोग मोबाइल से प्राप्त करते हैं।
बदलते गांव को देखती हूं तो निराशा होती है। अब न वहां पहले की तरह प्यार है न
व्यवहार। भले ही सिर से पल्लू उतर गया हो, औरतें हाट-बाजार करने लगी हैं, मगर यह किसी के ख्याल में नहीं आया कि
मरती हुईलाइब्रेरी को बचा लिया जाए, या गाँव में पढ़ने की संस्कृति विकसित
हो। बल्कि अब वो गाँव , कस्बा हो गया है और निरंतर कई होटल और मॉलनुमा दुकानें खुल गई हैं, मगर बौद्धिक विकास के लिए अब भी वहां
कोई प्रयास नहीं किया जा रहा।
उन दिनों साप्ताहिक बाजार में एक किताब की दुकान लगती थी, जिसमें चंपक, नंदन, मधु मुस्कान से लेकर राजन-इकबाल, गुलशन नंदा, रानू और सुरेंद्र मोहन की किताबें
बिकती थीं। यह दुकान बाजार के एकदम अंतिम छोर पर लगा करती थी, जैसे कोई उपेक्षित चीज हो, जिसकी माँग ऐसी नहीं कि उसका सामने
प्रदर्शन कर ग्राहकों को आकृष्ट किया जाए। हालांकि मैं उस दुकान की नियमित
ग्राहक थी क्योंकि माँ के लिए किताबें लाते-लाते पढ़ने का चस्का मुझे भी लग चुका
था।
उन दिनों आस-पड़ोस की लड़कियां जो हाई स्कूल में पढ़ती थीं, सब माँ की दोस्त होतीं और मेरी बुआएं
बन जातीं। स्कूल के बाद वो सब की सब माँ के पास आ जातीं और उनकी बैठकी जमती... फिर
वो पत्रिकाएं, उपन्यास पूरे गांव में घूमते, जिसे शायद छुपाकर पढ़ा जाता, क्योंकि दादी के शब्दों में माँ काम
का हर्जा कर किताबें पढ़ती थीं... इसलिए दादी को देखते ही किताबें छुपा दी जातीं।
हालांकि माँ बहुत काम करती थीं, और उन दिनों घर में मेहमानों का तांता
सा लगा रहता था। तब न फोन था न ही पूछकर किसी के घर जाने का चलन। रिश्तेदार और
दोस्त अचानक आ जाते और हफ्तों रहते। न उन्हें जाने की जल्दी होती न घरवालों को
भगाने की हड़बड़ी। मिट्टी के चूल्हे पर खाना पकता और पाँत में बैठकर सब खाते।
लकड़ी सुलगाते और उससे निकलते धुएँ से माँ की आँखें लाल हो जातीं, मगर कभी कोई शिकायत नहीं की। तब न मिक्सी थी न फ्रिज...न ही गैस का चूल्हा... फिर भी बहुत कुछ
पकातीं मेरी माँ... खुशी-खुशी। दूर गांव से कोई रेलयात्रा के लिए जाता, तो बीच रास्ते उतरकर घर आ जाता कि रात
की गाड़ी है... दोपहर यहीं खा कर निकलेंगे और रात की रोटी बांध देना। न कहने वाले
को हिचक, न देने वाले के माथे पर शिकन...
बाजार से खरीदी हुई सब्जियों को ताजा रखने का एक जुगाड़ उस समय
देखा था। पकी हुई सब्जी हो या बिना पकी हुई, उन्हें किसी बर्तन में रखकर रस्सी से
उस बर्तन को बांध दिया जाता था और घर में बने गहरे कुएँ में पानी के पास लटका दिया
जाता था। कच्ची सब्जियों को ताजा रखने का एक दूसरा उपाय था कि मिट्टी की जमीन पर
सब सब्जियां रखकर उसके ऊपर जूट का बोरा भिंगाकर ढक दिया जाता। इस तरफ हफ्ते भर
सब्जियां हरी रहतीं। यकीन मानिए मेरी यादों में उन सब्जियों का हरापन अबतक बचा रह
गया है, जो अब फ्रिज भी नहीं बचा पाता। धनिया-पुदीना कभी बाजार से खरीदना
नहीं पड़ता था। कुएँ के आसपास की जमीन पर धनिया-पुदीना के पौधे लहलहाते रहते, जब जरूरत हुई, जितनी जरूरत हुई तोड़ लिया। इन पौधों
को पानी देने की भी जरूरत नहीं पड़ती थी। क्योंकि कुएँ के आसपास नहाने से लेकर
बर्तन माँजने तक का काम होता था और इस दौरान बहने वाला पानी इन पौधों तक खुद पहुंच
जाता था। उस पुदीने की जो महक हुआ करती थी, वह अबके पुदीने में नहीं मिलती।
लाइब्रेरी और किताबों की बात से ध्यान आया कि किसी क्लास की
किताबें कैसे एक हाथ से दूसरे हाथ तक होती हुईं सालों साल विद्यार्थियों के काम
आती थीं। कोर्स की किताबों का ऐसा उपयोग होता कि जैसे रेशा-रेशा वसूल करे कोई।
पांचवीं कक्षा में जानेवाले छात्र के माता या पिता पहले से ही छठवीं कक्षा में
जाने वाले बच्चे और उसके माता-पिता को कह देते कि उसकी किताब मुझे दे देना।
परीक्षा समाप्त होने के बाद सीनियर बच्चे से किताबें ले ली जातीं।
बड़े शौक और खुशी से परीक्षा परिणाम आने के पहले ही पुरानी जिल्द
हटा दी जाती...भूरे रंग का, थोड़ा खुरदुरा खाकी पेपर आता। बच्चा अपनी माँ की सहायता से आटे को
पकाकर उससे लेई (गोंद) तैयार करता। फिर एक-एक कर पुरानी किताबों पर नई जिल्द
चढ़ती। उसे अच्छे तरीके से साटकर नया-सा बना दिया जाता। उन किताबों के ऊपर सफेद कागज चिपकाया जाता और स्केल से लाइन खींचकर नाम लिखने की जगह बनाई
जाती। मगर अभी नाम नहीं लिखा जाता, क्योंकि सीनियर बच्चा इस शर्त के साथ
किताबें देता कि अगर वह फेल हुआ...तो वापस ले लेगा।
हालांकि किताबें उन्हीं छात्रों से ली जातीं, जिन पर भरोसा होता कि वह फेल नहीं
करेगा। यह सिलसिला तब तक चलता जब तक किताब फट न जाए और पढ़ने लायक न बचे। इस तरह
किताबों के एक सेट से कई साल बच्चे पढ़ लेते। यह आपसी प्रेम का भी परिचायक है और
बचत का भी। कोई बच्चा नाक सिकोड़कर फरमाइश नहीं करता कि उसे नई किताबें ही चाहिए। परीक्षा परिणाम घोषित होने के बाद
कॉपियाँ खरीदकर उन पर जिल्द चढ़ाई जाती और पिछले वर्ष की कॉपियों के बचे पन्ने को
एक साथ सीलकर उनसे रफ कॉपी बनाई जाती।
अब इस्तेमाल की यह प्रणाली गांवों से भी बाहर हो गई। ठहर कर सोचिए
तो पता चलेगा कि इस व्यवस्था के खत्म होने के पीछे का कारण है हर वर्ष किताब के
सेट में थोड़ा सा बदलाव। इससे एक ही घर का बच्चा आगे की कक्षा में पढ़ रहे भाई या
बहन की किताबों का उपयोग नहीं कर पाता। खासकर निजी स्कूल मैनेजमेंट कमीशन के लालच
में निजी प्रकाशकों की किताबें ही कक्षा में चलाते हैं और इस कारण विद्यार्थियों
को नई किताबें खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
उन दिनों क्लास से बाहर की किताबें पढ़ने वाले बच्चों का अपना
ग्रुप होता। एक किताब को सब पढ़ते..एक-एक कर। स्कूल के बाद वाला समय जुगाड़ और खेल
का होता। पहले मानसिक संतुष्टि के लिए किताब की खुराक जमा की जाती, फिर बाहर खेलते भागते बच्चे। कल्पनाओं की दुनिया
में घिरे बालक कभी जमीन खोदकर पाताल में बौने ढूंढ़ने की कोशिश करते तो कभी उड़ने
वाले ड्रैगन तलाशते। गांव के बच्चे खेल-खेल में प्रकृति को जानते-समझते।
आजकल के बच्चों से पूछा जाए तो वे शायद पपीता और पाकड़ के पेड़ भी
न पहचानें, मगर ग्रामीण बच्चे खेल-खेल में शिक्षा ग्रहण करते। एक खेल हुआ करता था- अत्ती -पत्ती कौन पत्ती। सब बच्चे एक जगह
इकट्ठा होते और उनमें से एक बच्चा निकलकर दौड़ जाता गांव में किसी भी ओर और किसी
पेड़ की पत्ती तोड़ लाता। बाकी बच्चों को उसे पहचानना होता कि किस पेड़ की पत्ती
है। जो जवाब नहीं दे पाता, उसकी बारी होती कि वह कोई ऐसा पत्ता लाए, जिसे पहचानना कठिन हो। इस क्रम में
छोटी उम्र से ही बच्चे लगभग सभी पेड़-पौधे पहचानने लगते थे, जिससे आगे जाकर उनका प्रकृति से गहरा
जुड़ाव हो जाता था। बच्चे सभी पेड़ पौधों की विशेषता से वाकिफ होते थे और
अनजाने ही प्रकृति की सुरक्षा की भावना उनमें घर कर जाती थी। आम की गुठली खाकर
फेंकने पर भी उसमें पत्ते निकल आते तो बड़े एहतियात से उसे ऐसी जगह रोप दिया
जाता जहां उसे पेड़ बनने में कोई परेशानी न हो। अब तो गांवों में भी जगह मिलना
मुश्किल हो गया है। घर और उसके चारों ओर इंच-इंच को पक्का करना शायद शहरी और
अमीर होने की निशानी मान ली गई है।
सब कुछ सीख लेना, पा लेना सबके नसीब में नहीं होता। झारखंड के एक सज्जन को 'लाइब्रेरी मैन' के नाम से पुकारा जाता है। यह एक ऐसा
इनसान है, जिसका सपना था आईएएस अधिकारी बनने का, मगर गरीबी के कारण महँगी किताबें नहीं
खरीद पाए और उनका सपना, सपना ही बनकर रह गया। अपनी परेशानी को जानते हुए इस इनसान ने गरीब
बच्चों की सहायता के लिए राज्य के पांच जिलों में 40 पुस्तकालय की स्थापना की और इस
लाइब्रेरी की मदद से हजारों युवा अपने सुनहले भविष्य की इमारत गढ़ने में लगे हैं।
कुछ सुखद है तो बहुत कुछ दुखद भी। मेरे गांव की लाइब्रेरी के बंद
हो जाने का जितना दुख मुझे है, उससे शायद कहीं ज्यादा ही दुख हुआ था, जब पता चला था कि करनाल में 'पाश पुस्तकालय' तोड़ दिया गया। मन बड़ा ही आहत हुआ था सुनकर कि पुस्तकालय की 8 हजार किताबें तीन जगह शिफ्ट कर दी
गईं। अगर हम साहित्य को संभालकर नहीं रखते, तो समाज को कैसे संभालेंगे... उस पर
वह पुस्तकालय जो अवतार सिंह सिंधू के नाम पर स्थापित थी, उसे हम बचा नहीं पाए तो क्या हैरानी
की बात है कि रामेश्वर सिंह पुस्तकालय की किताबों को दीमक लगने के बाद पुस्तकालय
ही बंद कर दिया जाए।
किताबें बागी बनाती हैं...यह पुरातन सोच है मगर आज भी कहीं-न कहीं
लोगों के मन में यही बात है। इन दिनों स्त्री चेतना, स्त्री आलोचना पर कई किताबें आई हैं। साथ की एक महिला, जो खुद रचनाकार हैं, उसने इन किताबों को उलट-पलट कर वापस
दिया। पूछने पर कि क्यों नहीं लिया, उनका जवाब था कि कहीं इन्हें पढ़कर
प्रभावित हो गई, सवाल उठाने, विरोध करने लगी तो मेरा परिवार ही टूट जाएगा।
इक्कीसवीं सदी में इस सोच पर बेशक किसी को भी हैरत होगी, मगर बहुत कुछ बदलना अभी बाकी है। उस
दौर में भी जब मध्यमवर्गीय परिवार की स्त्रियों को घर से बाहर निकलने नहीं दिया
जाता था, इसी इलाके में मेहनतकश आदिवासी औरतें अपने लिबास और औरतों के
पुरातन डर को परे हटाकर खेतों में काम करतीं और जंगलों में विचरती थीं क्योंकि
उनका सामाजिक ढांचा ही ऐसा है। मगर क्या उन्हें शिक्षित होने की जरूरत नहीं.. क्या उनको देश-विदेश और विज्ञान की बातें नहीं जाननी चाहिए?
यह भी एक सच है कि बेहतरीन जिंदगी की उम्मीद में शहरों का रुख करने
से अब गांव के गांव खाली हो रहे हैं। पुरानी विरासत पर नए रंग रोगन चढ़ाने की
कोशिश में सब कुछ बदरंग हुआ जा रहा है... हम अपने मूल्य खो रहे हैं। ऐसे समय में
जब सतही और उथले ज्ञान का बोलबाला है.. पुस्तकों की जरूरत और शिद्दत से महसूस होती
है। खासकर गांवों में बेवजह समय गुजारने वाले बच्चों को प्रतियोगी परीक्षा से लेकर
कॉमिक्स, लिटरेचर आदि की किताबें एक साथ मिल जाएं, तो उनकी जिंदगी सँवर जाए।
इन दिनों गांव में भी लोगों को ई - बुक्स के बारे में पता है। एक
तो वैसे भी कोरोना काल में पढ़ाई के लिए बच्चों के हाथों में मोबाइल दे दिया गया।
अब यह स्लोगन वास्तव में चरितार्थ हो गया है कि 'दुनिया मेरी मुट्ठी में।' एक क्लिक में हम जो चाहें, ढूंढ़ या देख सकते हैं। इसके लिए
किताबों का पन्ना पलटने की जरूरत नहीं। फिर उस पर चैटजीपीटी के आने से किसी भी
सवाल का जवाब तुरंत पा सकते हैं। पर शायद इस खतरे से अनजान हैं लोग कि जो फायदा
किताब पढ़ने से होता है, वह कभी ई - बुक्स या किसी भी सर्च इंजन के इस्तेमाल से नहीं पा सकते।
किताबें पढ़ते हुए हमारे अंदर एक दृश्य बनता जाता है और पढ़ा हुआ सब हमारे दिमाग
में धंस जाता है। जबकि ऑनलाइन पढ़ी हुई बातें हमारे जेहन से जल्दी ही उतर जाती
हैं। मगर लोगों को समझ नहीं आती यह बात, इसी कारण पुस्तकालय की जरूरत को कई
जगह नकारा जा रहा है।
हालांकि यह सुखद है कि इन दिनों गांव-गांव में कम्युनिटी लाइब्रेरी
खुल रही है और उत्साही युवा इसे अलग-अलग गांव कस्बों में खोल रहे हैं। खेती-किसानी
करने वाला परिवार अपने बच्चों को महँगी किताबें खरीदकर नहीं दे सकता, मगर ऐसे बच्चे लाइब्रेरी का फायदा उठा
सकते हैं। अब गांव-गांव लाइब्रेरी की मुहिम जोरों पर है तो झारखंड सहित पूरे देश
में उम्मीद कि लाइब्रेरी खुलेगी और मैं भी अपने गांव के पुस्तकालय में वाणभट्ट की
आत्मकथा वापस रख दूंगी।
गांव की यादें ऐसे खींचती हैं कि लगता है शहर छोड़ वहीं बस जाए जाए, जहां सुविधाएं तो कम थीं, मगर प्रेम इतना कि छलकता रहता। भूख लगने पर किसी के घर भी खाना मिल जाता था। तब पानी-भात और अचार में जो स्वाद मिलता था, वह आज के छप्पन भोग में भी कहां। मिलकर खाने से स्वाद और बढ़ जाता है, भूख और तेज हो जाती है। सामूहिकता में जीने वाले हमसब कभी नहीं जानते थे कि न्युक्लियर परिवार क्या होता है। सामूहिकता में जीने के अभ्यास ने हमें उदार बनाया था और निजी खुशियों, सुकून और एकांत की तलाश में बने अब के न्युक्लियर परिवार ने हमारे जीवन को एकाकी और उदास बनाया है। हो सके तो आइए, हम अपने गाँव की ओर चलें। उसे समृद्ध बनाएँ। विकसित बनाएँ और गाँव का वह ‘देहातीपन’ बचाए रखें जिसे इनसानियत, प्यार, स्नेह, अपनत्व, लगाव और स्वाभिमान के रूप में हम जानते हैं।









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